18 अक्तूबर 2014

( लघु-कथा घुसपैठ )

                 दीपावली से दो रोज़ पहले त्यौहार के लिए मैं परिवार सहित छोटा-मोटा सामान खरीद रही  थी। लक्ष्मी  माता के कलैंडर का मोल पूछते समय मैंने उसे छुआ तो उसका कागज़ मुझे प्रतिवर्ष लिए जाने वाले कलैंडर से कुछ भिन्न सा लगा। कागज़ बहुत ही हल्का था।
                इस सम्बन्ध में मैंने दुकानदार से पूछते हुए उसे और कलैंडर दिखाने को कहा।प्रत्युत्तर में वह बोला-
  " और नहीं हैं जी , सभी ऐसे ही हैं। फटेगा नहीं यह,चाइनीज़  है जी चाइनीज़ ! सस्ता और टिकाऊ।"  

   "चाइनीज़?"- मैं बहुत हैरानी से बोली। पिछली कई दुकानों पर हम बिजली की सजावटी लड़ियाँ  उनके चाइनीज़ होने की वजह से ही छोड़ कर आये थे। भारतीय बिजली की लड़ियाँ  किसी दुकानदार के पास थी ही नहीं। बच्चों के खिलौने, बिजली से चलने वाले  सजावटी गिफ्ट, दीये और प्लास्टिक के रैक आदि बहुत सारा छोटा-मोटा सामान , सब चाइनीज़ थे। 

"अब यह  कलैंडर भी? लक्ष्मी माता का, हमारे दिन-त्योहारों का!"- बरबस ही मेरे मुंह से निकल पड़ा।

                   "दिन-त्यौहार तो हमारे ही हैं इस पर,बस कागज़ उनका है।उनकी फैक्ट्रियों में बना है जी यह। इसीलिए तो कह रहा हूँ - यह फटेगा नहीं।"  दुकानदार हमे समझाने की कोशिश कर रहा था।

"अब यह हैलिकॉपटर देखिये आप।अनब्रेकेबल है जी। बच्चा गिरा भी दे तो टूटेगा नहीं।सिर्फ 20 रुपये का है।हमारे इण्डिया में कहाँ बनता है जी ऐसा माल।यह तो चीन का कमाल है जी!"- दुकानदार बड़े गर्व से कहता चला जा रहा था।
               हमें चीन का कमाल दिखाने वाला वह भोला भारतीय दुकानदार सचमुच चीन के इस खतरनाक कमाल को नहीं समझ रहा था।बड़े दुखी और भारी मन से उस  कलैंडर  को वहीं छोड़ हम आगे बढ़ आये थे - भीड़ में किसी ऐसे दुकानदार की तलाश में ,जो इस चीनी घुसपैठ का हिस्सा न बन रहा हो।
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                                             डॉ. पूनम गुप्त