कों आज और कल.
नहीं मिले वो लम्हे
जिनमे मैं खुद को पुकार पाती.
समेटती ,सहेजती संवारती स्वयं को
और दर्पण में छवि निहार पाती.
वक्त की गर्द ने
हर अक्स धुंधला दिया
व्यस्त भागदौड़ ने
सब कुछ भुला दिया.
बरसों बाद आज
जब हटा व्यस्तता का पहरा.
प्रतिबिम्ब देख दर्पण में
स्मरण हो आया एक चेहरा.
समय की सलवटों से अलंकृत
थका थका सा कुछ क्लांत,
कुछ उद्विग्नता और चिंता से युक्त
पर निर्द्वंद, शांत.
दर्पण में दिखा वह अक्स
मुझ सा ही ,पर
किसी और इंसां का था,
दिखाई दिया जो मुझे खुद में,
वह चेहरा मेरी माँ का था.
बरसों से भले ही
वह किसी और दुनिया का बाशिंदा है,
पर आज भी, बरसों बाद भी,
मेरी माँ मुझ में जिंदा है.
हाँ! मेरी माँ मुझ में जिंदा है.